आज हमारी युवा पीढ़ी धर्म के अभाव में पतन की ओर अग्रसरित होती चली जा रही है, ऐसे में लोगों की चिन्तन क्षमता समाप्त हो गयी है। नित्य नये-नये मानवीय ह्रासता के कृत्य दिखायी देते हैं, ऐसा क्यों है? क्या हमने कभी विचार व चिन्तन किया है? आज हमारी सोचने की क्षमता इतनी कम क्यों हो गयी है, क्योंकि हम धर्म को समझ ही नहीं पा रहे हैं। हम धर्म को एकमात्र कर्मकाण्ड का रूप स्वीकार करते हैं। आज हमें धर्म को स्वयं के अन्दर धारण करना होगा। धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध इन दश प्रमुख कर्तव्यों को स्वयं के लिए धारण करने का नाम धर्म बताया है।
धर्म एक छोटे पात्र में रखा हुआ जल की भांति नहीं है अपितु यह तो अथाह सागर स्वरूप है जो सबको अपने में समाहित कर लेता है।
आम आदमी को भगवान से जोड़ने का एक मात्र साधन धर्म हैं।
धर्म से इंसान सत्य अहिंसा की ओर बढ़ता है। घर में इंसान को दयावान बनाता है। धर्म की शक्ति वह शक्ति है जो जीवन में परिवर्तन की लहर उत्पन्न करती है।
अनुसार धर्म ही संसार को धारण किए हुए है।
धर्म की आवश्यकता क्यों ? धर्म का विषय बड़ा गहन है । धर्म शब्द धृ + मन से बनता है। धृ का अर्थ जो है,जो विद्यमान है,जो स्थापित है,जो सुरक्षित है,जो नित्य सहायक है,जो आप धारण किया हुआ है और मन का अर्थ है याद करना,मानना, मूल्यवान समझना,बड़ा मानना,प्रत्यक्ष करना और पूजा करना। वेद,पुराणों तथा धार्मिक ग्रंथों में धर्म की परिभाषा कई तरह से की गई है।
अर्थात धर्मरहित मनुष्य मरे हुए मनुष्य के समान है। धार्मिक मनुष्य मरने के बाद भी जीवित रहता भा है, इसमें कोई शक नहीं, क्योंकि उसकी कीर्ति अमर रहती है। ऐसा धार्मिक मनुष्य दीर्घजीवी होता है
मनुष्य जब किसी पदार्थ को देखकर कार्य की ओर अग्रसर होता है तब चिन्तन उसको घेर लेता है, ऐसे समय में धर्म बताता है कि आपको किस दिशा में कार्य करना है, यही धर्म की आवश्यकता है
धर्म में वह शक्ति है धर्म में वह ताकत है जो बुराई से अच्छाई की ओर ले जाती है जो असत्य से सत्य पर विजय करवाता है जो आपको एक अच्छा इंसान बनाता है।
महाभारत शांतिपर्व में कहा गया है- ‘धर्म मनुष्यों का मूल है, धर्म ही स्वर्ग में देवताओं को अमर लिए बनाने वाला अमृत है, धर्म का अनुष्ठान करने से मनुष्य मरने के अनन्तर नित्यसुख भोगते हैं।
धर्म की आवश्यकता क्यों?
जीवन की सफलता सत्यता में है। सत्यता का नाम धर्म है। जीवन की सफलता के लिए अत्यन्त सावधान होकर प्रत्येक कर्म करना पड़ता है, यथा – मैं क्या देखूॅं, क्या न देखूॅं, क्या सुनॅूं, क्या न सुनूॅं, क्या जानॅंू, क्या न जानूॅं, क्या करुॅं अथवा क्या न करूॅं। क्योंकि मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है, जब मनुष्य किसी भी पदार्थ को देखता है तब उसके मन में उस पदार्थ के प्रति भाव (विचार) उत्पन्न होते हें। क्योंकि यही मनुष्य होने का लक्षण है, इसीलिए निरुक्तकार यास्क ने मनुष्य का निर्वचन करते हुए लिखा है कि ‘मनुष्यः कस्मात् मत्वा कर्माणि सीव्यति’ (३/८/२) अर्थात् मनुष्य तभी मनुष्य है जब वह किसी भी कर्म को चिन्तन तथा मनन पूर्वक करता है। यही मनन की प्रवृत्ति मनुष्यता की परिचायक है अन्यथा मनुष्य भी उस पशु के समान ही है जो केवल देखता है और बिना चिन्तन मनन के विषय में प्रवृत्त हो जाता है।
धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः’
जो व्यक्ति धर्म को जानना चाहता है, उसे वेद को प्रमुखता के साथ जानना होगा। धर्म धारण करने का नाम है इसी लिए कहते हैं ‘धारणाद् धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः’। जो किसी भी कार्य को करने में सत्य-असत्य का निर्णय कराये, चिन्तन व मनन कराये उसे धर्म कहते हैं। हम धर्म को धारण करते हैं तथा उसको व्यवहार रूप में प्रस्तुत करते हैं।
धर्म ज्ञान के लिए वेद ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि वेद ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान है और ईश्वर सर्वज्ञ होने से उसके ज्ञान में भ्रान्ति अथवा अधूरापन का लेशमात्र भी निशान नहीं है। वेदज्ञान सृष्टि के आदि का है तथा सभी का मूल है, अतः हम मूल को छोड़ पत्तों अथवा टहनियों को समझने में अपना समय व्यर्थ न करें।
इसीलिए धर्म का ज्ञान और उस पर आचरण मनुष्य के लिए परमावश्यक है, यह हमारी उन्नति व सुख का आधार है। मनुष्य के परम लक्ष्य पुरुषार्थ चतुष्ट्य की सिद्धि में परमसहायक है।