पंथशरीर पुरुष का, लेकिन मांग में सिंदूर और सोलह श्रृंगार:घर-परिवार तक छोड़ देते हैं, आखिर क्या है सखी संप्रदाय शरीर पुरुष का, लेकिन वेश स्त्री का। नख से लेकर शीश तक श्रृंगार, लंबा घूंघट, हाथों में चूड़ियां और मांग में सिंदूर। हाव-भाव, चाल-चलन, पहनावा सब कुछ स्त्रियों जैसा।
ये लोग सखी सम्प्रदाय के होते हैं, जिसे सखीभाव सम्प्रदाय भी कहा जाता है। सखी सम्प्रदाय, निम्बार्क मत की एक शाखा है जिसकी स्थापना स्वामी हरिदास (जन्म सं० १४४१ वि०) ने की थी। इसे हरिदासी सम्प्रदाय भी कहते हैं। इसमें भक्त अपने आपको श्रीकृष्ण की सखी मानकर उसकी उपासना तथा सेवा करते हैं और प्रायः स्त्रियों के भेष में रहकर उन्हीं के आचारों, व्यवहारों आदि का पालन करते हैं। सखी सम्प्रदाय के ये साधु अधिकतर ब्रजभूमि में ही निवास करते हैं।
स्वामी हरिदास जी के द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बड़ी विलक्षण है। निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं। श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है।
यह सम्प्रदाय “जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी” के आधार पर अपना समस्त जीवन “राधा-कृष्ण सरकार” को न्यौछावर कर देती है। सखी सम्प्रदाय के साधु अपने को “सोलह सिंगार” नख से लेकर चोटी तक अलंकृत करते हैं। सखी सम्प्रदाय के साधु अपने को सखी के रूप में मानते हैं, यहाँ तक कि रजस्वला के प्रतीक के रूप में स्वयं को तीन दिवस तक अशुद्ध मानते हैं।
ऐसे ही कोई भी व्यक्ति सखी नहीं बन जाता, इसके लिए भी एक विशेष प्रक्रिया है जो की आसान नहीं। इस प्रक्रिया के अंतर्गत व्यक्ति पहले साधु ही बनता है, और साधु बनने के लिए गुरु ही माला-झोरी देकर तथा तिलक लगाकर मन्त्र देता है। तथा इस साधु जीवन में जिसके भी मन में सखी भाव उपजा उसे ही गुरु साड़ी और श्रृंगार देकर सखी की दीक्षा देते हैं। निर्मोही अखाड़े से जुड़े सखी सम्प्रदाय के साधु अथवा सखियाँ कान्हा जी के सामने नाच कर तथा गाकर मोहिनी सूरत बना उन्हें रिझाते हैं।
सामान्यतया सभी सम्प्रदायों की पहचान पहले उनके तिलक से होती है, उसके बाद उनके वस्त्रों से। गुरु रामानंदी सम्प्रदाय के साधु अपने माथे पर लाल तिलक लगाते हैं और कृष्णानन्दी सम्प्रदाय के साधु सफेद तिलक, जो की राधा नाम की बिंदिया होती है, लगाते हैं और साथ ही तुलसी की माला भी धारण करते हैं।
सखी सम्प्रदाय से जुडी एक और बात बहुत दिलचस्प है की इस सम्प्रदाय में कोई स्त्री नहीं, केवल पुरुष साधु ही स्त्री का रूप धारण करके कान्हा को रिझाती हैं। सखी सम्प्रदाय की भक्ति कोई मनोरंजन नहीं बल्कि इसमें प्रेम की गंभीरता झलकती है, और पुरुषों का यह निर्मल प्रेम इस सम्प्रदाय को दर्शनीय बनाता है।
किन्नर अखाड़े की तरह अब सखी संप्रदाय भी अलग अखाड़ा बनाने को आतुर है। अपने बीच में एक सखी को महामंडलेश्वर बनाने की तैयारी भी है। संखी संप्रदाय की काफी सखियां निर्मोही अखाड़े पहुंचीं। शाही स्नान में शामिल होने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति का भाव सबके सामने प्रदर्शित किया। अखाड़े के पदाधिकारियों ने कहा कि आप सभी अगले कुंभ तक अपने को तैयार करो। संप्रदाय की सखियों की अगुवाई कर रही कर्णप्रिया दासी को महामंडलेश्वर बनाने का भी आश्वासन दिया गया।
सखी संप्रदाय के संत अपना सोलह श्रंृगार नख से लेकर चोटी तक अलंकृत करते हैं। इनमें तिलक लगाने की अलग ही रीति है। रजस्वला के प्रतीक के रूप में स्वयं को तीन दिवस तक अशुद्ध मानते हैं। इस संप्रदाय की सखियों को प्रेमदासी भी कहा जाता है। आठो पहर भगवान की सेवा करती हैं। अखाड़े के श्रीमहंत विजयदास भैयाजी बताते हैं कि सखियां दासी भाव में वैरागी अखाड़ों में विचरण करती हैं। इन्हीं के बीच रहती हैं। जो पुरुष का व्यक्तिव्य भूल कर स्त्री भाव में आता है उसे सखी संप्रदायी में दीक्षा लेनी पड़ती है। यह विरक्त वैष्णव, रामानंदी, विष्णुस्वामी, निंबार्की एवं गौड़ीय संप्रदाय से संबंधित रहती हैं।
साधु समाज करता है पालन
सखी संप्रदाय का भोजन आदि का इंतजाम वैरागी अखाड़े के साधु-संत करते हैं। आम लोगों से कुछ नहीं मांगते हैं। साधु जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। निर्मोही अखाड़े के सचिव श्रीमहंत राजेंद्र दास बताते हैं कि कृष्ण को अपने पति के रूप में देखते हैं। राधा को सखी के रूप में मानती हैं।