सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की संविधान पीठ ने पिछले दिनों प्रशासनिक अफसरों के ट्रांसफर-पोस्टिंग के मामले में दिल्ली सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया था। CJI डीवाई चंद्रचूड़ (CJI DY Chandrachud) की अगुवाई वाली बेंच ने कहा था कि पब्लिक ऑर्डर, पुलिस और भूमि संबंधित मामलों को छोड़कर, उप-राज्यपाल को चुनी गई सरकार की सभी बातें माननी होंगी। केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को बेअसर कर दिया। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इस अध्यादेश को दिल्ली के साथ विश्वासघात करार दे रहे हैं और विपक्ष को लामबंद करने में जुटे हैं, ताकि राज्यसभा से यह पास नहीं हो सके और अमल में नहीं आ पाए।
केंद्र का अध्यादेश क्या न्यायालय की अवमानना है।
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (NALSAR, Hyderabad) के पूर्व कुलपति और कानूनी विद्वान प्रो. फैजान मुस्तफा कहते हैं कि केंद्र सरकार ने इस मामले में रिव्यू पिटिशन भी दाखिल की है। यदि रिव्यू पिटिशन खारिज हो जाती, तब अध्यादेश लाना ज्यादा उचित होता। वह कहते हैं कि तमाम लोग सवाल उठा रहे हैं केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए अध्यादेश लाई, तो क्या ये ‘न्यायालय की अवमानना’ (Contempt of Court) होगी? ऐसा बिल्कुल नहीं है। यह रूटीन प्रॉसेस है। प्रो. मुस्तफा कहते हैं कि संसद जिन विषयों पर कानून बना सकती है, उस पर केंद्र सरकार अध्यादेश ला सकती है। केंद्र के पास एक्जिक्यूटिव पावर है।
क्या केंद्र सरकार पलट सकती है सुप्रीम कोर्ट का फैसला।
क्या केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले को पलट सकती है? प्रो. मुस्तफा कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए उसका आधार बदलना या हटाना पड़ता है। अगर आपने आधार नहीं बदला तो यह ‘ओवर-रूलिंग’ कहलाता है। लेकिन बेसिस यानी आधार हटा दिया तो ये संसद का अधिकार है कि वह कानून बनाकर फैसले को पलट सकती है।
प्रो. मुस्तफा ने एक वीडियो में एक उदाहरण से इसे समझाया है। वह कहते हैं- मान लीजिये कि सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के हिसाब से कोई बच्चा फेल हो जाए, क्योंकि उसके 40% अंक नहीं आए, तो संसद या सरकार को यह अधिकार नहीं है कि अध्यादेश लाकर या कानून बनाकर उस बच्चे को पास कर दे। लेकिन सरकार को यह अधिकार है कि वह संसद से कानून पास करा कर पासिंग मार्क 30% कर दे। इस स्थिति में वह बच्चा सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद पास हो जाएगा
कोर्ट में लंबित मामलों पर भी कानून बनाने का अधिकार।
प्रो. फैजान मुस्तफा कहते हैं कि कोई केस कोर्ट में पेंडिंग है, तब भी संसद या विधानसभा उस विषय पर नया कानून बना सकती है। वह कहते हैं कि तमाम लोग ऐसा कहते हैं कि कोई मसला न्यायालय के विचाराधीन तो सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती है, यह कानून की गलत व्याख्या या समझ है। 1969 का पृथ्वी कॉटन मिल्स का भी मामला बहुचर्चित है। जिसमें मामला कोर्ट में विचाराधीन था, लेकिन गुजरात सरकार ने कानून बना दिया था।
तो केजरीवाल के सामने है क्या रास्ता।
अब दिल्ली की केजरीवाल सरकार के पास दो रास्ते हैं। एक तो कोर्ट जाने का और दूसरा, संसद से अध्यादेश पारित नहीं होने देने की कोशिश करने का। अभी केजरीवाल दूसरे रास्ते पर जोर दे रहे हैं। वह तमाम विपक्षी पार्टियों से अपने लिए समर्थन जुटाने की कोशिश में हैं, ताकि राज्यसभा में अध्यादेश के समर्थन में बीजेपी को बहुमत नहीं मिल सके। ऐसा हो गया तो इसका बड़ा राजनीतिक संदेश भी जाएगा। दोबारा कोर्ट जाने पर एक तो उनका पक्ष उतना मजबूत नहीं बनता (क्योंकि केंद्र सरकार ने कोई अवैधानिक काम नहीं किया है) और दूसरा, अगर वह फिर वहां जीत गए तो केंद्र के पास फिर अध्यादेश लाने का विकल्प खुला होगा।